रविवार, 11 मई 2014

महाराज केजरादित्य और लोकतंत्र का पिशाच



//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
महाराज केजरादित्य ने जब दोबारा लोकतंत्र के पिशाच को कंधे पर उठाकर लोकसभा की तरफ दौड़ लगाई तो पिशाच बहुत फड़फड़ाया, चीखा-चिल्लाया, नानुकुर की, एक तरह से उसने केजरादित्य महाराज के साथ न जाने की ज़िद पकड़ ली। महाराज उसे जमीन पर घसीटते-पछीटते हुए खीच कर कंधे पर डालने का प्रयास करते रहे और लोकतंत्र का पिशाच उनका भरसक प्रतिरोध करता रहा। अंततः जीत महाराज केजरादित्य की हुई, लोकतंत्र के पिशाच को मरे हुए सुअर की तरह कंधे पर डालकर वे लोकसभा की दिशा में चल पड़े।
बोरियत दूर करने के लिए लोकतंत्र के पिशाच ने ही बातचीत प्रारम्भ की और केजरादित्य महाराज पर तीखा आक्रमण करते हुए पूछा-‘‘क्यों उठाया बे मुझे, आखिर क्यों! सड़ने देता मुझे वहीं। पिछली बार भी कंधे पर उठाकर विधानसभा की ओर ले चला था और बीच रास्ते में पटक कर चलता बना! जब सम्हाल नहीं सकता तो क्यों दोबारा उठाया मुझे! फालतू की नोटंकी मत किया कर, तुझसे कुछ होने-हवाने का नहीं है। चुपचाप मुझे वही छोड़ आ जहाँ से उठाया था।’’
केजरादित्य महाराज को अपनी पिछली हरकत से थोड़ी झेंप सी तो अवश्य महसूस हुई मगर उन्हें भी राजनीति में कुछ वक्त तो हो ही गया था। बेशर्मी की चमड़ी धीरे-धीरे मोटी हो चली थी। दंभ के साथ बोले-‘‘मैंने कोई गलती नहीं की है। गलती अगर किसी ने की है तो वो खुद तुम हो। क्यों एक टाँग पर लटके हुए थे मेरे कंधे पर, ठीक से नहीं बैठ सकते थे। अच्छे से अपने पैर गरदन के दोनों ओर जमाकर बैठते तो उन कम्बख्त पाखंडी भ्रष्टाचारियों को तुम्हारी टाँग पकड़ कर खीचने का मौका ही नहीं मिलता। कभी नहीं गिरते मेरे कंधे से। मैं तुम्हें विधानसभा पहुँचाकर ही दम लेता।’’
लोकतंत्र का पिशाच इस पर आँखें मटकाता और हाथ नचाता हुआ बोला-‘‘राजन के बच्चे, जबरदस्ती मुझे कंधे से उतार फेंका बीच सड़क में और कह रहा है एक टाँग से क्यों लटके थे? अंधा है क्या तू! देखता नहीं मेरी एक ही टाँग है! लम्बी छिपकली की पूँछ की तरह। सढ़सठ सालों में काफी लम्‍बी हो गई हैं मेरी यह टाँग। देश की सीमाएँ फांदकर बाहर भी निकलने लगी हैं। नौसीखिये! पहले तुझे मुझ जैसे एक टाँग वाले विराट पिशाच को सुभीते से कंधे पर बिठाने की प्रेक्टिस करके आना चाहिए था, बड़ा आया विधानसभा पहुँचाने वाला।’’
केजरादित्य ने आश्चर्य से दीदें फाड़ते हुए कहा-‘‘एक टाँग व़ाला पिशाच! लोकतंत्र? छिपकली की पूछ जैसा! मैंने तो सुना था कि तुम्हारी तो चार टाँगें हैं! इसीलिए तो मैंने तुम्हें अपने कंधे पर बिठाया था। मुझे भरोसा था कि मैं चारों टाँगों को मैं अच्छे से साध लूँगा। अगर मुझे पता होता कि तुम्हारी एक ही टाँग है, और उसकी वजह से तुम ठीक से कंधे पर नहीं सवार हो सकते हो, तो सच कहता हूँ उस छिपकली की पूँछ के तो मैं टुकड़े-टुकड़े करके जमुना में बहा देता और जनता के चंदे से चारों टाँगों का एक नया सेट बनवा देता।
लोकतंत्र का पिशाच केजरादित्य महाराज की बातें सुनकर ठठाकर हँस पड़ा। बोला-‘‘ राजन बच्चा है तू अभी। हैं तो मेरी चार ही टाँगें, मगर जब तुझ जैसे किसी सिरफिरे से साबका पड़ता है तो मेरी चारों टाँगें मिलकर एक हो जाती हैं और छिपकली की पूँछ की शक्ल ले लेती हैं। जानता है राजन छिपकली की पूँछ की खासियत क्या होती है?’’
केजरादित्य महाराज भोलेपन से बोले-‘‘नहीं जी, मुझे तो किसी ने आजतक नहीं बताई छिपकली की पूँछ की खासियत, तुम्हीं बता दो!’’
लोकतंत्र का पिशाच बोला-‘‘ राजन जाओ अपने बड़े-बूढ़ों से पूछो, वे बताएंगे, कि छिपकली की पूँछ जितनी बार भी काटी जाए उतनी बार उग आती है।’’ इतना कहकर लोकतंत्र के पिशाच ने जोरदार दानवी ठहाका लगाया और महाराज केजरादित्य के कंधे से नीचे कूद पड़ा। दुनिया देख रही थी कि अब की बार वह बदबू और कीचड़दार नाली में गिरा था। महाराज केजरादित्य पूरे जतन से उसे खीचकर फिर से अपने कंधे पर बिठाने की कोशिश करने लगे मगर लोकतंञ का पिशाच कसके धरती पर अपनी पकड़ बनाए चिपका रहा। अचानक आसपास पेड़ों के झुरमुट के पीछे से कई सारे महाराज, महारानियाँ निकल आए और लोकतंञ के पिशाच के साथ घसीटा-पछीटी करने लगे। सभी लोकतंञ के पिशाच को अपने कंधे पर बिठाकर लोकसभा ले जाना चाहते हैं। कौन उसे उठाकर कंधे पर बिठा पाएगा या नहीं बिठा पाएगा, यह रहस्‍य और रोमांच और कौतूहल का विषय है।
पाठकों से सवाल-‘‘कौन सा महाराज लोकतंत्र के पिशाच को कंधे पर लादकर लोकसभा तक ले जाने में कामयाब हो पाएगा? सही जवाब के लिए लिखिए लोकतंञ का पिशाच 1 अथवा लोकतंञ का पिशाच 2 अथवा 3,4,5,6  और भेज दीजिए अपना एस.एम.एस 272,272,272 पर।    
(अप्रकाशित)  
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