शुक्रवार, 21 जून 2013

स्कूल चले हम



//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
स्कूल खुल गए है। स्कूल चले हमका नारा बुलंद है। हालाँकि, यह साफ नहीं है कि स्कूल आखिर जाना किसको है। क्या सिर्फ उन्हीं नालायकों से स्कूल जाने की अपील की जा रही है जो कभी स्कूल के पचड़े में पड़ना नहीं चाहते और सुखी हैं, बल्कि मास्टरों को भी पढ़ाने के बेकार झंझट से बचाये हुए हैं। या, उन्हें भी स्कूल जाना है जो स्कूल जाकर भी कभी ठीक से पढ नहीं पाए और बेतकल्लुफी से देश का बंटाधार कर रहे हैं।
दीवारों पर नारा लिखा मिलता है - ‘‘हम अपना कर्त्‍तव्‍य निभाएँ, हर बच्चे को स्कूल ले जाएँ।’’ ठीक है हम कर्त्‍तव्‍य निभाने को तैयार हैं, और अपने आसपास जो भी बच्चा प्रसन्नचित हँसता-खेलता नज़र आएगा उसे पकड़कर स्कूल तक छोड़ भी आऐंगे, मगर उस बच्चे को स्कूल से व़ापस कौन लेकर आएगा यह कोई नहीं बता रहा है। बच्चा स्कूल चला तो जाए मगर लौटकर न आए, कितने टेन्शन की बात है।
आला अफसरों-मंत्रियों द्वारा सरकारी खर्चे पर छोटे शिक्षा अधिकारियों-कर्मचारियों को डॉट पिलाई जाती है कि बताओं-‘‘हम चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि स्कूल चले हम’, फिर भी बच्चे स्कूल क्यों नहीं पहुँच रहे हैं ?’’ बात यह है कि बच्चों की नन्हीं-नन्हीं नजरें जहाँ-जहाँ तक भी जाती हैं, इलाके में कोई स्कूल ही नहीं होता, बच्‍चे जाएँ तो कहाँ जाएँ ? दूर-दराज के स्कूलों में बच्चे मान लो पहुँच भी जाएँ तो जिस भवन को स्कूल बताया जाता है वहाँ भैंसें बंधी हुई मिलतीं है। कुछ बच्चे उस पेड़ को स्कूल मानने को तैयार नहीं होते जिसके तने पर ब्लेकबोर्ड के लिए पटिया ठोककर दीवार बनाने का खर्चा बचाया गया होता है। कुछ बच्चे काफी विचार-विमर्श के बाद घर में ही बैठे ताश खेलना ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें इस गुप्त रहस्य का कभी पता नहीं चलता कि आखिर उन्हें कौन से स्कूल की ओर चलकर अपनी उपस्थिति दर्ज करानी है, प्रायमरी, माध्यमिक अथवा हाईस्कूल। कुछ के लिए तगड़ी फीस कुशाग्र विद्यार्थी बनने के रास्ते का पहला और अंतिम रोड़ा बन जाती है।  
कुछ को दलिया पसंद नहीं है इसलिए दिक्कत है, और कुछ इस सूचना के अभाव में निर्णय नहीं ले पाते हैं कि किस स्कूल में छिपकली, काकरोच, मेंढक, साँप-बिच्छू युक्त पोषण आहार की बजाए शुद्ध शाकाहारी खाना मिल सकता है! कुछ का सोचना है कि माँसाहार ही कराकर पढ़ाई कराई जानी है तो चिली-चिकन, मटन-दोप्याज़ा न सही, थोड़ा स्टेंडर्ड बढ़ाकर कम से कम अंडा-करी तो परोसी जाए!
एक बात और है बच्चों को तो गा-गाकर स्कूल चलने के लिए कहा जाता है परन्तु मास्टरों से बिल्कुल नहीं कहा जाता कि वे भी कभी स्कूल चले जाएँ। संभव है बच्चे तो समय पर स्कूल पहुँच जाएँ मगर मास्टरजी स्कूल पहुँचने की कोई पक्की गारंटी नहीं हैं। ऐसी परिस्थिति में बच्चे टॉकीज़ चले हम‘, ‘आवारागर्दी करें हमका कार्यक्रम भले हाथ में ले लें, ‘स्कूल चले हमका नारा सुन लें लगता नहीं है।
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7 टिप्‍पणियां:

  1. रिक्शे वालों के लिये भी हो सकता है, जो भी मिले, स्कूल छोड़ आयें।

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  2. यह भी बता दिया करें कि 'नई दुनिया " में प्रकाशित ।
    .
    .बढ़िया!

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  3. सार्थक व्यंग्य प्रस्तुति.बधाई!

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