मंगलवार, 30 नवंबर 2010

राजा का बाजा

//व्यंग्य-प्रमोद ताम्बट//
             आज तक सुनते आ रहे थे-‘‘भैया राजा बजाएगा बाजा, राजा बजाएगा बाजा, पल्ले ही नहीं पड़ता था कि आखिर है कौन वह राजाऔर कब बाजाबजाएगा। अब समझ में आया कि कौन है वह राजाऔर उसने कैसे बाजाबजाया। कौन-कौन राजा की बैंडपार्टी में बाजा बजाने के लिए शामिल था यह भी पता चल गया है। यह बात बताने की जरूरत ही नहीं कि अच्छे खासे बजते बाजे में रायता उन लोगों ने फैलाया है जिन्हें राजा ने अपनी बैंड पार्टी में शामिल नहीं किया।  
            हमारे फिल्मी दुनिया के कवि, गीतकार कितनी दूर की दृष्टि रखते हैं, यह भी अब पता चला। पच्चीस-तीस साल पहले ही उन्होंने बता दिया था कि - भैया, राजा बजाएगा बाजा। हम ही उल्लू के पट्ठे थे जो समझ नहीं पाए। इतने वर्षों पहले एक गीतकार को आखिर कैसे पता चला होगा कि आने वाले वर्षों में देश में कोई राजा पैदा होगा और वह इतनी बड़ी रकम का घोटाला अन्जाम देकर देश का बाजा बजा देगा। है ना आश्चर्य की बात। ऐसे दूरदृष्टि सम्पन्न लोगों को तो विशेष मान-सम्मान, और राजकीय सुख-सुविधाओं के साथ दिल्ली में ही बिठाकर रखना चाहिए। अगर जिन्दा हो और बूढ़ा होकर चलने फिरने से माज़ूर ना हो गया हो तो उस गीतकार को तो तुरंत पकड़कर जबरदस्ती सी.बी.आई, आई.बी. वगैरह में भरती कर दिया जाना चाहिए ताकि वह गीत लिख-लिखकर सरकार को बता सके कि देश में और कौन-कौन राजा बाजा बजा रहा है।
            हमारे देश भारत में वैसे तो राजा लोग हमेशा ही बाजा बजाते चले आ रहे हैं।  सामंती काल में वे प्रजा का बाजा बजाते थे। अपना बाजा बजवाते बजवाते जब प्रजा परेशान हो गई और अँग्रेज़ों ने एक के बाद एक राजाओं-महाराजाओं की नाक में नकेल डालना शुरू किया तो राजतंत्र का बाजा बज गया। भारत अँग्रेज़ों के चुंगल से छूटा, भारतीय गणराज्य का गठन हुआ तो राजाओं का रहा-सहा बाजा भी बज गया, परन्तु थोड़े ही दिनों बाद वे फिर पार्लियामेंट के भीतर घुसकर जनता का बाजा बजाने लगे। मगर उन्होंने भी कभी ऐसा धुँआधार बाजा नहीं बजाया, जैसा कि इस लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए राजाने बजाया है। अद्भुत् है भारतीय लोकतांत्रिक बाजा वादन कला। दुनिया के किसी भी देश में ऐसी लोकतांत्रिक बाजा वादन कला देखने-सुनने में आना संभव ही नहीं है।
            राजा बंद कमरे में बाजा बजाते रहे और सोचते रहे कि यह कर्कष आवाज़ साउंडप्रूफ कमरे से बाहर ना जाए ताकि कोई दूसरा इसे सुनने के सुख से बचा रहे। मगर 1.76 लाख करोड़ का बाजा बजे और कोई सुन न पाए, ऐसे बहरे हम लोग हैं नहीं। कान को हर वक्त झन्नाटेदार तेल से साफ रखते हैं। प्रेस और मीडिया के हमारे माइक इतने संवेदनशील तो हैं कि महीन आवाज़ में बजी पुंगी भी सारे देश को सुनाई दे जाए, फिर यह तो बारात में सबसे आगे रह कर बजने वाला विशाल भोंपू था जिसे बहरे भी सुन लेते हैं, फिर हम-आपको कैसे ना सुनाई देता।
पत्रिका में दिनाँक 30.11.2010 को प्रकाशित।  

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